Friday, April 29, 2011

माँ

बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन
, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बाँस की खुर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
,
आधी सोई आधी जागी थकी दुपहरी जैसी माँ ।
चिड़ियों के चहकार में गूँजे राधा-मोहन अली-अली
,
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
, घर की कुंड़ी जैसी माँ ।
बीवी
, बेटी, बहन, पड़ोसन थोड़ी-थोड़ी सी सब में ,
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी मां ।
बाँट के अपना चेहरा
, माथा, आँखें जाने कहाँ गई ,
फटे पुराने इक अलबम में चंचल लड़की जैसी माँ

सुख देती हुई माओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती।
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती।
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है।
मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों
से माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना।
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ
जाती हे
सर्दी में मौसम से बचाती, तन के कपडे जैसी माँ
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,







1 comments:

Anonymous said...

Yes, Very True. WONDERFUL THOUGHTS. GREAT...
KEEP IT UP..

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